"शर्म आ रही है ना" By Prasoon Joshi

शर्म आ रही है ना उस समाज को जिसने उसके जन्म पर खुल के जश्न नहीं मनाया
शर्म आ रही है ना उस पिता को उसके होने पर जिसने एक दिया कम जलाया
शर्म आ रही है ना उन रस्मों को उन रिवाजों को उन बेड़ियों को उन दरवाज़ों को
शर्म आ रही है ना उन बुज़ुर्गों को जिन्होंने उसके अस्तित्व को सिर्फ़ अंधेरों से जोड़ा
शर्म आ रही है ना उन दुपट्टों को उन लिबासों को जिन्होंने उसे अंदर से तोड़ा
शर्म आ रही है ना स्कूलों को दफ़्तरों को रास्तों को मंज़िलों को
शर्म आ रही है ना उन शब्दों को उन गीतों को जिन्होंने उसे कभी शरीर से ज़्यादा नहीं समझा
शर्म आ रही ना राजनीति को धर्म को जहाँ बार बार अपमानित हुए उसके स्वप्न
शर्म आ रही है ना ख़बरों को मिसालों को दीवारों को भालों को
शर्म आनी चाहिए हर ऐसे विचार को जिसने पंख काटे थे उसके
शर्म आनी चाहिए ऐसे हर ख़याल को जिसने उसे रोका था आसमान की तरफ़ देखने से
शर्म आनी चाहिए शायद हम सबको क्योंकि जब मुट्ठी में सूरज लिए नन्ही सी बिटिया सामने खड़ी थी तब हम उसकी उँगलियों से छलकती रोशनी नहीं उसका लड़की होना देख रहे थे उसकी मुट्ठी में था आने वाला कल और सब देख रहे थे मटमैला आज
पर सूरज को तो धूप खिलाना था बेटी को तो सवेरा लाना था और सुबह हो कर रही

Comments

Popular posts from this blog

World Health Day 2019

Manohar Parrikar Biography: Family, Qualifications, Political life & Awards

Election Code of Conduct